जल्दी निकालो, हम सब देखते रहेंगे... असम में घुसपैठियों की पहचान बता सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ा टास्क दे दिया

Updated on 18-10-2024 12:59 PM
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि 24 मार्च, 1971 के बाद असम आने वाले सभी बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और उन्हें जितना जल्दी हो निकाला जाना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा है कि बांग्लादेशियों को नागरिकता दिए जाने को लेकर हुए असम समझौते के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में धारा 6ए का विशेष प्रावधान वैध है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने कहा कि एनआरसी डेटा को अपडेट करके बांग्लदेशी घुसपैठियों की पहचान और उनके निर्वासन की पक्की व्यवस्था होनी चाहिए। इस पर असम के पूर्व एनआरसी कोऑर्डिनेटर ने आशंका जताई कि एनआरसी अपडेट में घुसपैठिये फर्जी दस्तावेज दिखाकर अपना नाम जुड़वा लेंगे और कोई नहीं निकाला जाएगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह एनआरसी अपडेशन और घुसपैठियों के निष्कासन की प्रक्रिया की निगरानी करेगा।

असम आए बांग्लादेशियों के लिए 25 मार्च, 1971 कट ऑफ डेट फिक्स


दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में 25 मार्च, 1971 या उसके बाद असम आने वाले सभी बांग्लादेशी प्रवासियों को अवैध घोषित कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि इन प्रवासियों का राज्य की संस्कृति और जनसांख्यिकी पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। केंद्र और राज्य सरकारों को इनकी पहचान, पता लगाने और निर्वासन में तेजी लानी चाहिए।

यह फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने चार-एक के बहुमत से सुनाया। पीठ ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की वैधता को बरकरार रखा। यह धारा दिसंबर 1985 में 15 अगस्त, 1985 को अस्तित्व में आए असम समझौते के अनुरूप पेश की गई थी। यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकार और असम के छात्र संघों के बीच हुआ था जो बांग्लादेशियों के बड़े पैमाने पर अवैध आवक के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। धारा 6ए को सुप्रीम कोर्ट में इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि यह नागरिकता प्रदान करने के लिए संविधान में निर्धारित तिथि से अलग है।

बांग्लादेशियों की नागरिकता का नियम समझ लीजिए


सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कर दिया कि नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6ए के तहत 1 जनवरी, 1966 से पहले असम में प्रवेश करने वाले बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिक माना जाएगा। उसने यह भी साफ-साफ कहा कि 1 जनवरी, 1966 और 24 मार्च, 1971 के बीच राज्य में आने वालों को कुछ शर्तों के अधीन 10 साल बाद ही नागरिकता दी जानी थी।

बंग्लादेशी घुसपैठियों से असम को खतरा: सुप्रीम कोर्ट


जस्टिस सूर्यकांत ने अपने और जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस मनोज मिश्रा के लिए 185 पृष्ठों का बहुमत का फैसला लिखा। इसमें धारा 6ए की वैधता के अलावा बांग्लादेशी प्रवासियों के अवैध प्रवाह के कारण असम के निवासियों के सामने आने वाले सांस्कृतिक और जनसांख्यिकीय संकट का भी जिक्र किया गया और इससे निपटने के उपाय बताए गए। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में सिर्फ इतना बताया कि नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए वैध है। हालांकि, जस्टिस जेबी पारदीवाला ने इससे असहमति जताते हुए कहा कि धारा 6ए अब अप्रासंगिक हो गया है।

1947 में देश के विभाजन के बाद से बांग्लादेशियों का अवैध प्रवेश एक विवाद का विषय रहा है। भाजपा और असम गण परिषद (एजीपी) ने देश की अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरे और सीमावर्ती क्षेत्रों में डेमोग्राफी को बदलने की साजिश के रूप में इसके खिलाफ अभियान चलाया है। वहीं, विरोधियों ने उन पर अवैध अप्रवासियों के मुस्लिम होने के कारण समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगाया है। इस मुद्दे पर असम में कांग्रेस की राजनीतिक हैसियत कमजोर हो गई और भाजपा वहां एक प्रमुख ताकत के रूप में उभर गई। दिलचस्प बात यह है कि आगामी झारखंड चुनावों में भी यह एक प्रमुख मुद्दा बन गया है।

जस्टिस कांत ने असम में बांग्लादेशी प्रवासियों की अनियंत्रित घुसपैठ से उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिए दो दशक पुराने एक फैसले का हवाला दिया। सर्बानंद सोनोवाल मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि 'इसमें कोई संदेह नहीं है कि असम राज्य को बांग्लादेशी नागरिकों के बड़े पैमाने पर अवैध प्रवासन के कारण 'बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति' का सामना करना पड़ रहा है।'

वहीं, जस्टिस कांत, जस्टिस सुंदरेश और जस्टिस मिश्रा ने कहा, '25 मार्च, 1971 को या उसके बाद असम में प्रवेश करने वाले अप्रवासी धारा 6ए के तहत दिए गए सुरक्षा के हकदार नहीं हैं। नतीजतन, उन्हें अवैध अप्रवासी घोषित किया जाता है। तदनुसार, धारा 6ए उन अप्रवासियों के संबंध में बेमानी हो गई है, जिन्होंने 25 मार्च, 1971 को या उसके बाद असम में प्रवेश किया है।'

सुप्रीम कोर्ट का आदेश- घुसपैठियों को जल्द बाहर करो


बहुमत ने माना कि 25 मार्च, 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की पहचान, पता लगाने और निर्वासन के लिए जारी किए गए निर्देशों को शीघ्रता से लागू किया जाना चाहिए। महत्वपूर्ण रूप से, इसने पांच कानूनों का हवाला दिया। ये कानून हैं - अप्रवासी (असम से निष्कासन) अधिनियम, 1950; विदेशी अधिनियम, 1946; विदेशी (न्यायाधिकरण) आदेश, 1964; पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920; और पासपोर्ट अधिनियम, 1967। इन कानूनों को धारा 6ए के विधायी उद्देश्य को प्रभावी बनाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए। यानी 25 मार्च, 1971 के बाद किसी भी अवैध बांग्लादेशी प्रवासी को असम में प्रवेश नहीं करने देना।

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि सोनोवाल फैसले में दिए गए निर्देशों को 20 साल बाद भी ठीक से लागू नहीं किया गया है। विदेशी न्यायाधिकरणों के समक्ष केवल 97,714 मामले लंबित थे जबकि लाखों अवैध बांग्लादेशी प्रवासी राज्य में प्रवेश कर चुके हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अब से ऐसे प्रवासियों का पता लगाने और निर्वासन की प्रगति की निगरानी करने का फैसला किया है। जस्टिस कांत ने कहा, 'आप्रवासन और नागरिकता कानूनों का कार्यान्वयन केवल अधिकारियों की इच्छा और विवेक पर नहीं छोड़ा जा सकता है। इस अदालत द्वारा निरंतर निगरानी की आवश्यकता है।'

94 पृष्ठों की अपनी राय में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा, 'धारा 6ए का विधायी उद्देश्य भारतीय मूल के प्रवासियों की मानवीय जरूरतों और भारतीय राज्यों की आर्थिक और सांस्कृतिक जरूरतों पर प्रवासन के प्रभाव को संतुलित करना था। धारा 6ए में नियोजित दो मानदंड असम में प्रवासन और 24 मार्च, 1971 की कट-ऑफ डेट, उचित हैं।'

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असम में खुशी


असम में घुसपैठ के खिलाफ छह साल तक चले जन आंदोलन के पीछे की ताकत ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) ने गुरुवार को दूसरी ऐतिहासिक जीत का जश्न मनाया। सुप्रीम कोर्ट ने त्रिपक्षीय समझौते को लागू करने के लिए संशोधन द्वारा लाए गए प्रमुख नागरिकता खंड की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जिससे राज्य की पहचान और जनसांख्यिकी को बचाने की लड़ाई को बल मिला है।

आसू के मुख्य सलाहकार समुज्ज्वल भट्टाचार्य ने कहा कि नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला प्रभावी रूप से असम समझौते का समर्थन करता है। समझौते में प्रतिबद्धताएं धारा 6ए के कार्यान्वयन पर टिकी हैं, जिसे अदालत में चुनौती दी गई थी। उन्होंने कहा, 'हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तहे दिल से स्वागत करते हैं। इसने स्थापित किया है कि असम आंदोलन वास्तविक कारणों से किया गया था और सभी प्रावधान कानूनी रूप से मान्य हैं।'

गुवाहाटी उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील बिजन कुमार महाजन ने कहा कि जाति, पंथ और धर्म के बावजूद लोगों को अब धारा 6ए की पवित्रता को स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने कहा, 'अपने छात्र जीवन से हम इस दुविधा का सामना करते रहे हैं कि नागरिकता निर्धारित करने के लिए आधार वर्ष 1951 है या 1971 और अब इंतजार खत्म हो गया। यह भारतीय न्यायपालिका की खूबसूरती है कि शीर्ष अदालत की एक संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से धारा 6ए को बरकरार रखा है।'

असम पब्लिक वर्क्स के अभिजीत सरमा ने धारा 6ए की पुष्टि को विवाद का एक ऐतिहासिक समाधान बताया। असम पब्लिक वर्क्स मामले में मूल याचिकाकर्ता था, जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में एनआरसी को अपडेट करने का आदेश दिया। उन्होंने अपडेटेड एनआरसी में आंकड़ों की प्रामाणिकता और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद असम समझौते को लागू करने में बाधा के रूप में इसके सत्यापन में देरी को लेकर संदेह जताया। उन्होंने कहा, 'असमिया लोगों का भविष्य क्या होगा? आज भी इस प्रश्न का उत्तर प्रामाणिक एनआरसी ही है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट का फैसला एनआरसी की प्रासंगिकता को उजागर करता है।'

रिटायर्ड आईएएस ने जताई नाराजगी, वजह जान लीजिए

असम में पूर्व एनआरसी कोऑर्डिनेटर और रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हितेश देव सरमा ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 6ए को संवैधानिक रूप से वैध ठहराए जाने पर असहमति जताई है। सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने फैसले को निराशाजनक और असम के लिए एक भयानक दिन करार दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने एनआरसी की व्यापक समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख नहीं किया। इससे पहले ही विदेशियों को नागरिकता मिल सकती है, जिनके नाम कथित रूप से गलत सर्टिफिकेट्स के आधार पर अपडेटेड नागरिकता सूची में शामिल किए गए थे। उन्होंने कहा, 'आशंका है कि लाखों विदेशियों के नाम वाली मौजूदा एनआरसी को अब अंतिम दस्तावेज घोषित किया जाएगा।'

धारा 6ए का मूल यह है कि 1 जनवरी, 1966 से पहले असम में प्रवेश करने वाले अप्रवासी नागरिकों के रूप में सभी अधिकारों का आनंद लेंगे। वहीं, 1 जनवरी, 1966 से 25 मार्च, 1971 के बीच राज्य में आने वालों को जांच और केस स्पेसिफिक जरूरतें पूरी करनी होगीं।

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