सतना । सतना जिले की रैगांव विधानसभा को कांग्रेस ने 12290 मतों से फतह कर लिया। लेकिन यह जीत न केवल रैगांव तक सीमित रहेगी बल्कि इसका असर जिले की राजनीति पर पडऩे वाला है। इसका पूरे विन्ध्य में एक संदेश जाएगा इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है। इस नतीजे से जहां भाजपा सकते में है वहीं रैगांव की जीत ने कांग्रेस में एक नया आत्म विश्वास तो जगाया ही है साथ ही यह भी सबक दिया है कि एकसूत्र में अगर कांग्रेस चुनाव मैदान में उतरती है तो नतीजे उसके पक्ष में आते हैं।
गुटों में बंटी रहने वाली कांग्रेस इस पूरे चुनाव में एकजुट नजर आई और कहीं भी किसी ने विरोध का झंडा नहीं उठाया। उधर भाजपा चुनाव के शुरुआती दौर से भितरघात और जातीय राजनीति के चंगुल में जो फंसी तो अंत तक नहीं उबर पाई। भाजपा का स्थानीय संगठन भी निष्प्रभावी रहा या कहा जा सकता है कि संगठन ज्यादातर पार्टी के पक्ष में खड़ा नजर नहीं आया। यह सभी स्थितियां न केवल भाजपा के लिये भी सबक हैं बल्कि 2023 के लिये आत्म विश्लेषण का बड़ा विषय है।
प्रत्याशी चयन में बड़ी चूक
रैगांव उपचुनाव के नतीजों को अगर देखें तो यह स्पष्ट समझ में आ रहा है कि भाजपा ने प्रत्याशी चयन में बड़ी गलती कर दी। इसका नतीजा यह रहा कि भाजपा को भारी भितरघात का सामना करना पड़ा। दूसरी ओर रैगांव की स्थितियों को अगर देखें तो यहां पर जमीनी तौर पर भाजपा का संगठन पूरी तरह से निष्प्रभावी रहा। इसकी भी वजह रही स्थानीय संगठन में जुगुल किशोर बागरी परिवार का गहरा प्रभाव। रैगांव क्षेत्र के मतदाताओं में जो प्रभाव बागरी परिवार का था टिकट बदलने से इनमें जो नाराजगी दिखी उसे भाजपा भर नहीं सकी और यह अंडर करेंट बड़ा प्रभावी साबित हुआ।
जातीय समीकरण में बड़ा बदलाव
सबसे ज्यादा असर अगर कुछ इस चुनाव में दिखा है तो वह है जातीय समीकरणों का बदलाव। पिछले चुनावों में जिस तरीके से कुशवाहा समाज भाजपा के पक्ष में खड़ा था वह इस बार पूरी तरह से कांग्रेस के पाले में चला गया। इसकी पुष्टि कुशवाहा बाहुल्य पोलिंगों से भी हो रही है। इसका पूरा क्रेडिट सतना विधायक सिद्धार्थ कुशवाहा के पाले में जाता है। दूसरा इस चुनाव में कांग्रेस ने 2018 के आमचुनाव की स्थितियों पर भी पूरा नियंत्रण रखा। दरअसल आमचुनाव में जिस तरीके से क्षत्रिय मतदाताओं के खुलकर कांग्रेस के पाले में दिखने के कारण क्षेत्रीय जातीय समीकरणों के हिसाब से बहुसंख्य मतदाता वाला वर्ग भाजपा के पाले में चला गया था। कांग्रेस ने इस बार इस समीकरण को ध्यान में रखते हुए सधी हुई चाल चली। नतीजा यह रहा कि पिछली बार जो बहुसंख्य मतदाता वर्ग भाजपा में चला गया था वह कांग्रेस के पाले में आता दिखा। इसका सबूत शिवराजपुर, रौड़, करसरा जैसी पोलिंग हैं। ब्राह्मण बाहुल्य शिवराजपुर में जहां भाजपा अच्छी खासी लीड लेती थी वहां बमुश्किल अपनी इज्जत बचाती नजर आई। यही हाल रौड़ जैसे गांवों का दिखा। हालांकि भाजपा को जिस तरीके से वोट मिले हैं इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि ब्राह्मण वर्ग ने उसका साथ नहीं दिया, लेकिन इस बार वह भरोसा नहीं दिखा जो पिछली बार था।
नारायण फैक्टर असरकारी
इस चुनाव मैहर विधायक नारायण त्रिपाठी का फैक्टर न केवल काफी चर्चा में रहा बल्कि इसका असर भी दिखा। विन्ध्य प्रदेश अभियान के तहत नारायण ने जिस तरीके से रैगांव उपचुनाव में वर्ग विशेष के सहारे भाजपा को नुकसान पहुंचाया है उसका दर्द भाजपा को परिणाम के बाद समझ में आ रहा होगा।
नेताओं की तैनाती और कमान
इस चुनाव में भाजपा ने अपने नेताओं को क्षेत्र की जिम्मेदारी देने में भी बड़ी गलतियां कीं। मसलन जातीय समीकरण जिस तरीके यहां बन और बिगड़ रहे थे ऐसे में मुख्य नेतृत्व जिस नेता को दिया गया उसने भी समीकरण कांग्रेस के पक्ष में किया। लेकिन यह भी उतना बड़ा सच है कि उनके अलावा पूरे विधानसभा क्षेत्र को समझने वाला कोई भाजपा नेता यहां नहीं था। इसी तरह से सीधी और रीवा विधायक को जिन इलाकों की जिम्मेदारी दी गई वह भाजपा को अपेक्षित बढ़त तो नहीं दिला सके लेकिन अन्य इलाके भी नहीं संभल सके।
बसपा वोटर पर कांग्रेस का कब्जा
आम चुनाव में बसपा का जो वोट बैंक था उस पर सेंधमारी करने में कांग्रेस पूरी तरह सफल रही वहीं कांग्रेस प्रत्याशी को बसपा के बहुसंख्यक वोटर ने अपना माना। जातीय फैक्टर यहां ज्यादा असरकारी रहा लेकिन जिस तरीके से प्रदीप पटेल को काफी पहले से मैदान में लगाया गया था वे भी इसकी नब्ज पकडऩे में कामयाब नहीं रहे। बल्कि क्षेत्र में पटेल वर्ग के तीन नेताओं की उपस्थिति से सतह पर नकारात्मक वातावरण जरूर बन गया।
अंतिम मैनेजमेंट की कोशिश विफल
हालांकि चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में सभी समीकरण सामने आने के बाद भाजपा ने मैनेटमेंट का भी दाव खेला। लेकिन इसमें भी खेला होता नजर आया। लिहाजा जो प्रभाव इसका होना चाहिए था वह नहीं हो सका और लोगों ने इसके बहाने अपने पंचायत चुनावों का भी इंतजाम कर लिया।
तो बदलेगी राजनीति...
इस चुनाव के जो नतीजे सामने आए हैं उससे जिले में सवर्ण मतदाता एक पाले में खड़े होते दिख रहे हैं। वहीं भाजपा के पिछड़ा कार्ड का जमीन पर असर अब नकारात्मक दिखने लगा है। इस चुनाव ने जिले को एक नया पिछड़ा वर्ग का नेता दे दिया जो कांग्रेस के पाले में है तो एससी वर्ग से रैगांव विधायक खुद बड़ा नेतृत्व बनती नजर आ रही हैं। अजय सिंह का जो ग्राफ नीचे था वह भी तेजी से ऊपर आ गया है। वहीं ब्राह्मण वर्ग के लिये नारायण त्रिपाठी भी एक विकल्प तैयार होते दिखे हैं। वहीं भाजपा खेमे में सांसद और मंत्री का ग्राफ इस जीत से कुछ नीचे आता नजर आ रहा है तो संगठनात्मक रूप से भी भाजपा के लिये पर्याप्त विचार करने की स्थितियां बन गई है।