अमेरिका से भिड़ा सऊदी अरब तो बना G7:अमीर देशों के क्लब को मनमोहन ने दी थी धमकी

Updated on 13-06-2024 02:21 PM

आज यानी 13 मई को सफेद घरों और मेहराबों के लिए मशहूर इटली के फसानो शहर में दुनिया के 7 सबसे ताकतवर देशों के नेता इकट्ठे हो रहे हैं। यहां अमीर देशों के सबसे बड़े संगठन ‘G7’ की बैठक शुरू हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस संगठन की मीटिंग में बतौर गेस्ट बुलाया गया है।

इटली की प्रधानमंत्री जियॉर्जिया मेलोनी ने चुनाव से पहले ही उन्हें इस समिट का न्योता भिजवा दिया था। हालांकि, ये पहली बार नहीं जब भारत को इस संगठन ने बतौर गेस्ट बुलाया हो। भारत सबसे पहले 2003 में इस समिट में हुआ था। इसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी फ्रांस गए थे।

भारत इस संगठन का हिस्सा नहीं है, फिर भी PM मोदी को क्यों बुलाया है, सबसे अमीर देशों के इस क्लब में क्या भारत भी शामिल हो सकता है... विदेश मामलों के एक्सपर्ट राजन कुमार से जानिए इन सभी सवालों के जवाब

सऊदी ने 300% महंगा कर दिया था तेल तो बना G7
1973 की बात है। मिडिल ईस्ट में इजराइल और अरब देशों में जंग छिड़ी थी। इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इजराइल की मदद के लिए 18 हजार करोड़ रुपए देने की घोषणा कर दी। फिलिस्तीन का समर्थन करने वाले सऊदी अरब के 'किंग फैसल' अमेरिका के इस फैसले से खासे नाराज हुए। उन्होंने न सिर्फ अमेरिका बल्कि इजराइल का समर्थन करने वाले सभी पश्चिमी देशों को सबक सिखाने का प्लान बनाया।

किंग फैसल ने तेल उत्पादन करने वाले देशों के संगठन ओपेक की एक मीटिंग बुलाई। ये तय हुआ कि ये देश तेल उत्पादन में भारी कटौती करेंगे। नतीजा यह हुआ कि 1974 आते-आते दुनिया में तेल की किल्लत हो गई।

इसकी वजह से तेल की कीमतें 300% तक बढ़ गईं। इसका सबसे ज्यादा असर अमेरिका और उसके अमीर साथी देशों पर पड़ा। वहां इकोनॉमिक क्राइसिस आ गई। महंगाई आसमान छूने लगी।

अगले साल 1975 में तेल की बढ़ती कीमतों से परेशान दुनिया के 6 अमीर देश एक साथ आए। इन देशों ने अपने हितों को साधने के लिए एक संगठन बनाया। इसे 'ग्रुप ऑफ सिक्स' यानी G6 कहा गया। इनमें अमेरिका, जर्मनी, जापान, इटली, ब्रिटेन और फ्रांस शामिल थे। 1976 में कनाडा के मिलने से ये संगठन G7 बना।

सोवियत रूस के टुकड़े हुए तो उसे भी G7 में शामिल किया, फिर निकाला क्यों?
1975 में जब G7 बना तो शीत युद्ध का दौर था। एक तरफ सोवियत संघ और उसके समर्थन वाले देश थे। जिन्होंने मिलकर वॉरसा के नाम से एक ग्रुप बनाया था। इसे काउंटर करने के वामपंथ विरोधी पश्चिमी देश जैसे फ्रांस, इटली, वेस्ट जर्मनी (उस समय जर्मनी दो टुकड़ों में बंटा था) अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और कनाडा एक मंच पर आए।

उनका मकसद अपने हितों से जुड़े अर्थव्यवस्था के मुद्दों पर एक साथ बैठकर चर्चा करना और सोवियत रूस को काउंटर करना था।

1998 में G7 संगठन के दूसरे फेज की शुरुआत होती है। सोवियत रूस कई टुकड़ों में बंट चुका था। शीत युद्ध खत्म हो गया था। तभी रूस को इसमें शामिल किया गया। इस समय रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन थे। तब रूस की पॉलिसी भी अमेरिका और पश्चिमी देशों के समर्थन वाली थी।

G7 में रूस के शामिल होने के बाद इसका नाम G8 हो गया। 2014 में क्रिमिया में रूस की घुसपैठ के बाद उसे संगठन से बाहर कर दिया गया था।

सवाल 1: G7 का काम क्या है
G7 संगठन की पहली बैठक में सऊदी की ओर से शुरू की गई ऑयल क्राइसिस से निपटने के लिए योजना बनाई गई थी। साथ ही उस समय एक्सचेंज रेट क्राइसिस शुरू हुआ था। इसका मतलब ये हुआ कि अमेरिका ने डॉलर की वैल्यू को सोने से डी-लिंक कर दिया था। अमेरिका ने ऐसा दुनिया में सोने की बजाय डॉलर के दबदबे को बढ़ाने के लिए किया था। हालांकि इससे दूसरे देशों के लिए आर्थिक परेशानियों शुरू हो गईं।

इस बीच पश्चिमी देशों को लगा कि उन्हें फाइनेंशियल लेवल पर पॉलिसी बनाने के लिए एक साथ आने की जरूरत है, ताकि वे आपस में अपने बिजनेस और ट्रेड के मसले सुलझा पाएं।

तब से लगातार हर साल इस संगठन की बैठक होती है। ये देश दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था से जुड़े अहम मुद्दों पर चर्चा करते हैं।

उदाहरण- 2022 में हुई G7 की बैठक में सातों देशों ने यूक्रेन जंग के चलते रूस पर आर्थिक पाबंदियां लगाने की घोषणा की थी। वहीं, पिछले साल चीन को उसके कर्ज जाल के खिलाफ चेतावनी दी गई थी।

सवाल 2: क्या G7 देश दुनिया में अपना दबदबा कायम करने के लिए साथ आए थे?
1975 में जब G7 की शुरुआत हुई उस समय ये देश दुनिया की 60% GDP को कंट्रोल करते थे। इनकी प्रति व्यक्ति आय भी ज्यादा थी। ये संगठन दुनिया में अमीर देशों के हितों को प्रमोट करता है।

वहीं दूसरी तरफ ग्लोबल साउथ के देश यानी गरीब और विकासशील देश G7 की पॉलिसी से कभी भी सहमत नहीं रहे हैं। इसकी वजह ये है कि ये देश दुनिया की अलग-अलग संस्थाओं जैसे WTO, IMF और वर्ल्ड बैंक को अपने कंट्रोल में रखना चाहते हैं। ये देश दुनिया में व्यापार और क्लाइमेट चेंज जैसे मुद्दों पर अपने मन मुताबिक नियम बनाते रहना चाहते हैं।

उदाहरण- ये देश अलग-अलग तरीकों से अपने किसानों को सब्सिडी देते हैं, लेकिन भारत, चीन और दूसरों को ऐसा करने से रोकते हैं।

इसकी वजह ये है कि जब भारत सरकार अपने किसानों को सब्सिडी देती है तो दुनिया में भारत का अनाज अमेरिका जैसे देशों के अनाज से ज्यादा सस्ता हो जाता है। इससे पश्चिमी देशों को नुकसान होता है।

ये देश जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए दूसरे देशों को कोयले के इस्तेमाल से रोकते हैं। जबकि खुद कोयला इस्तेमाल करके ही ये देश विकसित हुए हैं।

सवाल 7: सबसे अमीर देशों के इस क्लब में क्या भारत भी शामिल हो सकता है?
जवाब:
 हडसन इंस्टिट्यूट के मुताबिक भारत 11 बार इस समिट में शामिल हो चुका है। पिछले 5 साल से लगातार इसे गेस्ट के तौर पर बुलाया जा रहा है। इससे कई बार तो भारत G7 का परमानेंट मेंबर लगता है। इसे एक छोटे से किस्से समझिए...

2007 की बात है, G7 समिट जर्मनी में होने वाली थी। जर्मनी की तत्कालीन चांसलर ने भारत को बतौर गेस्ट न्योता दिया था। उस वक्त देश में UPA की सरकार थी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। भारत को जर्मनी से न्योता जरूर मिला था, लेकिन चांसलर मर्केल ने मेहमान देशों को अपनी बात रखने के लिए कम समय अलॉट किया। इससे मनमोहन नाराज हो गए और समिट में शामिल न होने की धमकी दे दी। इसके बाद उन्हें मनाने के लिए जर्मनी को भारत और दूसरे मेहमान देशों को दिया समय बढ़ाना पड़ा था।

G7 में भारत को बार-बार बुलाए जाने की वजह दुनिया में इसका बढ़ता प्रभाव और जिम्मेदारी है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) अपना प्रभाव खो रही है। अमेरिका और चीन-रूस के बीच रिश्ते खराब होने की वजह से UNSC अब मजबूत फैसले नहीं ले पा रही है।

उदाहरण के लिए, उत्तर कोरिया बार-बार नियमों का उल्लंघन कर मिसाइलों का परीक्षण करता है इसके बावजूद UNSC उत्तर कोरिया के खिलाफ सख्त प्रतिबंध नहीं लगा सकती, क्योंकि चीन और रूस ने इस पर वीटो लगा देते हैं।

1980 के दशक में G7 देशों की GDP दुनिया की कुल GDP की करीब 60 फीसदी थी। अब यह घटकर करीब 40 फीसदी रह गई है। G7 के प्रभावशाली देशों के अलावा भविष्य में इसका प्रभाव और कम होने की संभावना है। भारत G7 का नया सदस्य बन सकता है। इसकी कई वजह हैं। 1. रक्षा खर्च के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है। 2. भारत की GDP ब्रिटेन के बराबर है और फ्रांस, इटली और कनाडा से ज्यादा है। 3. भारत एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए G7 हर साल भारत को आमंत्रित करता है और दुनिया के हर बड़े मुद्दे को उसके साथ डिस्कस करना चाहता है।

सवाल 3: क्या G7 की बैठकों में जाने से भारत को चीन और रूस विरोधी बनाने की कोशिश हो रही है
जवाब: 
नहीं, भारत की फॉरेन पॉलिसी काफी क्लियर है। भारत की पॉलिसी हमेशा मल्टी एलाइन्मेंट की रही है, यानी भारत ने कभी भी किसी एक गुट का समर्थन नहीं किया है।

पश्चिमी देशों के साथ भी भारत का सहयोग है। भारत के पश्चिमी देशों के साथ इकोनॉमिक संबंध अच्छे हैं। ये देश भी भारत की तरह लोकतांत्रिक हैं। वहीं, भारत के ज्यादातर स्किल्ड वर्कर काम और पढ़ाई के लिए अमेरिका जाते हैं। इसके बावजूद भारत अमेरिका के दबाव में नहीं आता है।

इसके अलावा भारत सैंक्शन यानी दूसरे देशों पर पाबंदियां लगाने की अमेरिका और पश्चिमी देशों की पॉलिसी में भी शामिल नहीं होता है।

उदाहरण- रूस और यूक्रेन जंग में भारत ने किसी एक खेमे का समर्थन नहीं किया। जबकि अमेरिका लगातार यूक्रेन का समर्थन करने का दबाव बनाता रहा। वहीं, भारत अगर G7 की बैठक में जा रहा है तो वो G20 का भी मेंबर है। भारत BRICS, SCO का भी सदस्य है।

सवाल 4: मेंबर नहीं होने के बावजूद G7 की बैठक में शामिल होने से भारत को क्या फायदा है?
जवाब:
 इस बैठक में प्रधानमंत्री के जाने से भारत को 3 तरह से फायदे हो सकते हैं…

1. G7 में कई ट्राइलैट्रल यानी जरूरत के मुताबिक अलग-अलग तीन देशों की मीटिंग होती हैं। इसमें भारत भी किन्हीं दो देशों के साथ बैठकर किसी मुद्दे पर अपनी बात रख सकता है।

2. भारत कई मुद्दों को लेकर G7 देशों से सहमत नहीं है। जैसे क्लाइमेट चेंज और बिजनेस-ट्रेड। ऐसे में G7 की बैठक में शामिल होकर हम विकासशील देशों का नजरिया G7 के अमीर देशों के सामने रख सकते हैं। हालांकि, भारत का रोल डिसीजन मेकिंग में काफी लिमिटेड है।

वहीं, G7 के देश भी भारत की कई बातों से सहमत नहीं है। जैसे हमारे वर्करों को फ्री वीजा इश्यू करना। भारत G7 देशों के दूसरे देशों में सत्ता पलटने और दखलअंदाजी की पॉलिसी से सहमति नहीं रखता है।

UN में फैसला हुए बिना ही ये देश दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में दखल देते हैं, इससे भारत सहमत नहीं है। वो गेस्ट के रूप में भारत बुलाते हैं तो इन मामलों में हम अपना पक्ष रख पाते हैं।

भारत इंटरनेशल लॉ का पालन करता है। दुनिया के देशों का चीन के मुकाबले भारत पर भरोसा करना ज्यादा आसान है। उन्हें लगता है भारत को अपने पक्ष में रखना जरूरी है।

सवाल 5: G7 देशों के बीच आपस में कितनी एकजुटता है?
जवाब:
 G7 के देशों में अपने फायदों के लिए काफी ज्यादा एकजुटता है। हालांकि, इनके बीच कई मतभेद भी हैं। अमेरिका की पॉलिसी है कि वो इन देशों को हमेशा NATO के दायरे में रखे। वह कोई दूसरा सैन्य संगठन नहीं बनने देना चाहता है। उसे लगता है कि जर्मनी और फ्रांस कोई दूसरा संगठन बना लेंगे तो उससे NATO खतरे में आ जाएगा।

2018 में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने G7 के साझा बयान वाले कागज पर साइन करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कनाडा पर आरोप लगाया था कि वो उनके वर्करों और कंपनियों पर ज्यादा टैरिफ लगा रहा है। उस दौरान संगठन के बाकी देशों में अमेरिका के इस रवैये से चिंता बढ़ गई थी। हालांकि, बाइडेन ने उन चिंताओं को दूर कर दिया है।

वहीं, बात जब चीन के विरोध की होती है तो इन देशों में एकजुटता नहीं दिखती है। पिछले साल फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने चीन से वापस लौटकर कहा था कि वो वन चाइना पॉलिसी का समर्थन करते हैं, जबकि अमेरिका इसके उलट ताइवान का साथ देता है। फ्रांस के अलावा जर्मनी और इटली के भी चीन से अच्छे संबंध हैं।

सवाल 6: G7 की आलोचना क्यों होती है?
जवाब: 
G7 से दुनिया के बाकी देशों की नाराजगी की 6 वजहें हैं…

  • G7 अमीर देशों के इंटरेस्ट को प्रमोट करता है। बाकी दूसरे देशों का फेवर नहीं करता है।
  • ये संगठन गरीब देशों को कभी-कभार मदद जरूर करते हैं, लेकिन बड़े मुद्दों जैसे टेक्नोलॉजी शेयर करने के मामले में ये दूसरे देशों का साथ नहीं देते हैं।
  • इन देशों ने महामारी के दौरान भी कोविड वैक्सीन की टेक्नोलॉजी गरीब देशों को देने से मना कर दिया था।
  • ये बड़े फैसले लेने में दूसरे देशों से राय-मशविरा नहीं करते हैं। उदाहरण के तौर पर यूक्रेन जंग के बाद रूस पर सैंक्शन यानी पाबंदी लगाने में दूसरे देशों की सहमति नहीं ली।
  • बड़ी अंतराष्ट्रीय संस्थाओं में जब भी रिफॉर्म की बात होती है तो इन 7 देशों की लॉबी मजबूत हो जाती है।
  • ये देश अब अंतराष्ट्रीय कानून और नियमों में समय के मुताबिक सुधार नहीं चाहते हैं। WTO में ये अपने हित साधने में लगे रहते हैं।

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