कश्मीर पर नेहरू के मन में क्या था, जो नहीं मानी महाराजा हरि सिंह की बात...POK पर पाकिस्तान नहीं बनता 'गिद्ध'

Updated on 27-09-2024 04:47 PM
नई दिल्ली: 1947 से काफी पहले ब्रिटिश भारत के अंतिम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने सभी रजवाड़ों को यह साफ कर दियाा था कि स्वतंत्र होने का विकल्प उनके पास नहीं है। वे भौगोलिक सच्चाई की अनदेखी भी नहीं कर सकते थे। उन्हें भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में मिलना ही होगा। ब्रिटिश पत्रकार और लेखक एंड्र्यू ह्वाइटहेड की किताब 'ए मिशन इन कश्मीर' में कहा गया है कि आजादी के बाद जब पाकिस्तानी मिलिशया और फौज ने 22 अक्टूबर को कश्मीर पर कब्जा करने के इरादे से आगे बढ़ रही थीं, इसके पांच दिन बाद ही आनन-फानन में 27 अक्टूबर के तड़के पहली बार भारतीय सेना कश्मीर की ओर बढ़ी और उसे हवाई जहाज से श्रीनगर की हवाई पट्टी पर उतारा गया।

माना जाता है कि इस कार्रवाई से कुछ समय पहले ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत के विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि, भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन यह चाहते थे कि हरि सिंह को यह विलय पाकिस्तान के साथ करना चाहिए। मगर, हरि सिंह नहीं माने और उन्होंने जम्मू-कश्मीर की किस्मत लिख दी। जानते हैं महराजा हरि सिंह की कहानी, जाे इन दिनों जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान फिर से चर्चा में हैं।

आजाद भारत के अंतिम राजा का मिला तमगा


इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, जम्मू-कश्मीर रियासत के अंतिम शासक महाराजा हरि सिंह का जन्म 23 सितंबर 1895 को अमर महल जम्मू में हुआ था। वह महाराजा प्रताप सिंह के छोटे भाई राजा जनरल अमर सिंह के बेटे थे। वह 1925 में महाराजा प्रताप सिंह के निधन के बाद गद्दी पर बैठे। उन्हें 'स्वतंत्र भारत के अंतिम राजा' होने का तमगा मिला। दरअसल, वह 15 नवंबर, 1952 तक जम्मू-कश्मीर के महाराजा बने रहे, जबकि रियासतों के अन्य सभी शासक 1948 तक राजा नहीं रहे थे।

हरि सिंह जब बने कमांडर इन चीफ, आर्मी में शुरू कराया लंगर


1915 में जब हरि सिंह महज 20 साल के थे, तभी उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य बलों का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया गया था। स्टेट फोर्सेज की कमान संभालने पर उन्होंने अधिकारियों और सैनिकों के प्रशिक्षण और कल्याण में बहुत सारे सुधार किए। लंगर और ऑफिसर्स मेस नामक केंद्रीय रसोइया घरों की शुरुआत उनके द्वारा की गई थी.

मुस्लिम प्रजा को लेकर कहा- मैं भले हिंदू हूं, मगर मेरा धर्म न्याय


इतिहासकार एचएल सक्सेना की किताब 'द ट्रेजेडी ऑफ कश्मीर' के अनुसार, 1925 में सत्ता संभालने के बाद अपने पहले संबोधन में महाराजा हरि सिंह ने कहा, मैं एक हिंदू हूं, लेकिन अपनी जनता के शासक के रूप में मेरा एक ही धर्म है-न्याय। वह ईद के आयोजनों में भी शामिल हुए और 1928 में जब श्रीनगर शहर बाढ़ में डूब गया तो वह खुद दौरे पर निकले और मुस्लिमों जनता की मदद की।

सभी सरकारी भवनों से हटवाया यूनियन जैक, वायसराय झुके


डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार, महाराजा हरि सिंह ने यूनियन जैक (ब्रिटिश झंडे) को हटाने का आदेश दिया जो सभी सरकारी भवनों पर फहराया जाता था। ब्रिटिश सरकार ने इसका विरोध किया लेकिन वह पीछे नहीं हटे। बाद में वायसराय के व्यक्तिगत अनुरोध पर उन्होंने ब्रिटिश ध्वज को केवल रेजिडेंट के आवासीय भवन पर फहराने की अनुमति दी।


बाल विवाह पर रोक, दलितों को मंदिरों में प्रवेश कराया


प्रशासन और न्यायपालिका में उनके द्वारा किए गए कई सुधारों के कारण ब्रिटिश इतिहासकारों ने उनके शासन को गौरवशाली बताया गया है। उन्होंने अपनी प्रजा के कल्याण और बेहतरी के लिए कई सुधार किये। प्राथमिक शिक्षा को सभी विषयों के लिए अनिवार्य बनाना, बाल विवाह पर रोक लगाना, राज्य विषय अध्यादेश और अपनी निचली जाति के विषयों के लिए सभी पूजा स्थलों और जल स्रोतों को खोलना सबसे उल्लेखनीय हैं। उन्होंने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत सारे नए स्कूल और कॉलेज खोले।

घूसखोरी का पता लगाने और सजा देने में कामयाब


हरि सिंह ने कई मामलों में जब भी धन की कमी हुई। उन्होंने अपने निजी कोष से योगदान दिया। जिसका उल्लेख फाइलों पर उनकी नोटिंग में मिलता है। वह भ्रष्टाचार का पता लगाने, दोषी अधिकारियों का पता लगाने और उन्हें दंडित करने के अनूठे तरीके अपनाकर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में कामयाब रहे।

चमचागिरी का अवॉर्ड कौन और क्यों देता था


जम्मू-कश्मीर सरकार के मंत्री रहे जॉर्ज एडर्वड वेकफील्ड के हवाले से एमवाइ सर्राफ ने अपनी किताब 'कश्मीरी फाइट्स फॉर फ्रीडम' में कहा है कि महाराजा हरि सिंह अपने शासन के शुरुआती दौर में चमचागिरी के इतने खिलाफ थे कि उन्होंने एक सालाना खिताब देना तय किया था, जिसका नाम 'खुशामदी टट्टू' अवॉर्ड था। इसके तहत बंद दरबार में हर साल सबसे बड़े चमचे को टट्टू की प्रतिमा दी जाती थी।


जिन्ना की मुस्लिम लीग का किया था विरोध


महाराजा हरि सिंह को 1931 के बाद से अपने शासन के खिलाफ कश्मीरी विद्रोह का सामना करना पड़ा जो शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में घाटी में एक जन आंदोलन बन गया। उन्होंने जिन्ना की मुस्लिम लीग का उनके दो राष्ट्र सिद्धांत का विरोध किया। इसे लेकर शेख अब्दुल्ला ने उनका जमकर विरोध किया।

जब माउंटबेटन ने कहा-पाकिस्तान में मिल जाइए


महाराजा हरि सिंह को लार्ड माउंटबेटन ने बहुसंख्यक आबादी के मुस्लिम होने और पाकिस्तान से भौगोलिक रूप से करीब होने के आधार पर पाकिस्तान में शामिल होने की सलाह दी। मगर, महाराजा हरि सिंह को यह बात नामंजूर थी। उन्होंने अपने राज्य का भविष्य तय करने के लिए कुछ समय मांगा। वह जानते थे कि पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में थे।

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