नई दिल्ली यूपी विधानसभा चुनाव से पहले नेताओं का आयाराम-गयाराम का सिलसिला जारी है। यह चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण माना जा रहा है। असल में पार्टी नेताओं का पलायन थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसमें ताजा नाम कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे आरपीएन सिंह का है।
वही आरपीएन सिंह जिनका नाम यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस के 30 स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल था। पडरौना के राजा साहेब के नाम से चर्चित आरपीएन का पूरा नाम कुंवर रतनजीत प्रताप नारायण सिंह है। वे कुर्मी-सैंथवार जाति से आते हैं। गौरतलब है कि पूर्वांचल में कुर्मी वोटों की संख्या काफी है और अपने इलाके के सजातीय वोटों पर उनकी खासी पकड़ मानी जाती है।
राहुल गांधी के करीबी रहे और हाई प्रोफाइल नेता आरपीएन सिंह का भाजपा में शामिल होना यूपी में कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी मानी जा रही है। यूपीए शासन में केंद्रीय मंत्री और राहुल गांधी की युवा टीम का हिस्सा रहे आरपीएन सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद के मार्ग का अनुसरण करते हुए संकटग्रस्त कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है।
मालूम हो कि सिंधिया मध्य प्रदेश में कड़ी मेहनत से अर्जित कांग्रेस सरकार को गिराने में एक भूमिका निभाने में कामयाब रहे और वहीं, जितिन प्रसाद की बात करें, तो वो यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे हैं। कांग्रेस छोड़ने के बाद भाजपा में शामिल हुए और यूपी सरकार में मंत्री बनने में प्रसाद कामयाब रहे। ऐसे में बीजेपी में शामिल होने के बाद आरपीएन अब नए जगह की तलाश में है।
वहीं, कांग्रेस के अंदरूनी सूत्र तीनों की व्यक्तिगत पराजय की ओर इशारा कर रहे हैं। उनका मानना है कि ये पार्टी के लिए बहुत कम योगदान दे रहे थे। बताते चलें कि सिंह का कुशीनगर क्षेत्र में काफी प्रभाव है और 2014 के बाद कांग्रेस के पतन से पहले चुनाव जीतने वाले कुछ नेताओं में शामिल थे।
सिंह से दो दिन पहले बरेली के पूर्व सांसद प्रवीण आरोन अपनी पत्नी के साथ, जिन्हें विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार घोषित किया गया था, सपा में शामिल हो गए। कुछ अन्य जैसे सहारनपुर के इमरान मसूद और यूपी के कुछ विधायक और पूर्व विधायक हाल ही में भाजपा या सपा में शामिल हुए। इन नेताओं के पलायन से यूपी में कांग्रेस की स्थिति कमजोर दिखाती है।
ऐसे में विधानसभा चुनावों में भाजपा और सपा के बीच सीधे टकराव देखी जा रही है। कांग्रेस प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व के बावजूद जमीन पर अपने ही नेताओं के बीच ज्यादा आशावाद को प्रेरित नहीं करती है, जबकि पार्टी के भीतर अविश्वास का एक बड़ा हुजूम है।