नई दिल्ली । संसद का शीतकालीन सत्र तय समय से एक दिन पहले अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया है। इसके साथ ही राज्यसभा के 12 सांसदों के निलंबन भी समाप्त हो गया है। सत्र बेहद हंगामेदार रहा। सांसदों से आत्मनिरीक्षण की अपील की गई और संसद में आशा के अनुरूप कामकाज नहीं होने पर निराशा व्यक्त की गई। इस सत्र के दौरान राज्यसभा की उत्पादकता महज़ 47.9 फीसदी रही। 45.4 घंटों में से केवल 21.7 घंटे महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा में बीते।
शीतकालीन सत्र के दौरान विपक्ष से बातचीत की कोई पहल सरकार की तरफ से नहीं हुई। जब बात ही नहीं हुई, तो सरकार से यह पूछना भी निरर्थक होगा की आखिर संसद को चलाने की ज़िम्मेदारी किसकी थी? खैर, इस सवाल से बड़ा मसला यह है कि सरकार विपक्ष की बातों को अनसुना कर झूठी कहानी को आगे बढ़ाती रही। मेरी राय इस मामले में स्पष्ट है। सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए जनता के मुद्दों पर चर्चा से बचती रही और उसके अड़ियल रवैये से नुक़सान जनता का ही हुआ।
संवाद और विवाद पार्लियामेंट की आत्मा है, तो फिर सरकार पार्लियामेंट में बैठने वालों से दूरी क्यों बनाती रही? संसदीय इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब सत्तारूढ़ दल ने विपक्ष के प्रति सॉफ्ट रुख अपनाया। आज जो सत्ता में कायम हैं उन्हीं के दिग्गज नेताओं, स्व जेटली जी और सुषमा स्वराज ने संसद में गतिरोध पर इन्हीं शब्दों के माध्यम से मीडिया के बीच अपनी बात रखी थी। बहुत पुरानी नहीं, जनवरी 2018 की बात है। तब प्रधानमंत्री ने शीतकालीन सत्र के पहले दिन संवाददाताओं को संबोधित करते हुए कहा था संवाद के लिए सदन से बड़ा मंच कोई नहीं हो सकता। डिबेट, डिस्प्यूट और डायलॉग संसद की आत्मा हैं। आज वह नियम और परंपरा कहां गायब हो गई हैं? कौन तोड़ रहा है उन नियमों को? कहीं ये भी एक जुमला तो नहीं? सरकार विपक्षी सांसदों से संवाद कायम करने से क्यों बच रही है?
यहां उस घटना का ज़िक्र करना जरूरी है जब संसद के 254 वें सत्र के अंतिम दिन 11 अगस्त 2021 सरकार ने बीमा क्षेत्र के निजीकरण से संबंधित जनरल इंश्योरेंस बिल राज्यसभा में पेश किया था। इस अति महत्वपूर्ण बिल को जिस तरह से राज्यसभा में लाया गया वह संसद के निर्धारित नियमों का सरासर उल्लंघन था। हम इस बिल पर चर्चा करना चाहते थे। हमारी मांग थी कि इस बिल को सदन द्वारा बनाई जाने वाली चयन समिति के समक्ष भेजा जाए, लेकिन ऐसा कुछ होता न देख और सरकार की मंसा को भांपकर, विपक्षी सांसदों सहित मैंने उन हजारों कामगारों के लिए आवाज उठाई जिन्होंने अपना रोजगार खोने की चिंता जताई थी। हमने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय संपत्ति के निजीकरण के खिलाफ और बिना चर्चा विधेयक पारित किए जाने के खिलाफ उठाई। सरकार ने पहले भी अगले चार सौ सालों तक अन्नदाताओं को प्रभावित करने वाले विधेयक को महज चार घंटे की चर्चा में पारित करा दिया और आखिरकार चुनावी समीकरण को देखते हुए 700 अन्नदाताओं की मौत के बाद इन काले कानूनों को वापस लेना ही पड़ा।