बॉम्बे हाईकोर्ट ने मंगलवार (9 जुलाई) को एक पैरोल याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि जब किसी व्यक्ति को दुख बांटने के लिए पैरोल मिल सकता है। तो खुशियों के लिए भी बराबर के अवसर मिलने चाहिए।
कोर्ट विवेक श्रीवास्तव नाम के एक कैदी की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। याचिकाकर्ता ने अपने बेटे की ऑस्ट्रेलियाई यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के लिए ट्यूशन फीस और अन्य खर्चों का इंतजाम करने और उसे विदाई देने के लिए पैरोल की मांग की थी।
1. जेल में बंद व्यक्ति भी किसी का पिता है
जस्टिस भारती डांगरे और जस्टिस मंजूषा देशपांडे की बेंच ने कहा कि पैरोल के तौर पर दोषियों को थोड़े समय के लिए सशर्त रिहाई दी जाती है। ताकि वे बाहरी दुनिया से जुड़ सकें और अपनी पर्सनल और पारिवारिक जिम्मेदारियों का ध्यान रख सकें।
2. मेंटल स्टेबिलिटी बनाए रखने के लिए जरूरी है पैरोल
कोर्ट ने कहा कि पैरोल और फरलो जैसे प्रावधान जेल में बंद लोगों के लिए मानवीय दृष्टिकोण बनाए रखने के लिए है। कोर्ट ने कहा सजा में सशर्त छूट का उद्देश्य कैदी को जेल जीवन के बुरे प्रभावों से बचाने, मेंटल स्टेबिलटी और भविष्य के लिए उम्मीद बनाए रखने के लिए जरूरी है।
दरअसल विरोधी पक्ष के वकील ने दोषी को मिलने वाले पैरोल का विरोध किया था। उनका दावा था कि पैरोल आमतौर पर इमरजेंसी स्थितियों में दिया जाता है। ऐसे फीस का इंतजाम करना और बेटे को विदा करना पैरोल का आधार नहीं बन सकता है।
3. पिता-पुत्र एक दूसरे से मिलने के हकदार हैं
इस पर हाईकोर्ट ने कहा कि दुख के साथ-साथ सुख भी एक भावना है। अगर शादी का जश्न मनाने के लिए पैरोल मिल सकती है तो मौजूदा मामले में भी दोषी को राहत मिलनी चाहिए।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता को 10 दिन की पैरोल दी है। साथ ही कहा कि यह खुशी का मौका है, एक बेटा अपने पिता की शुभकामनाओं के साथ अलविदा का हकदार है। हम नहीं चाहते कि उसे इस पल से दूर रखा जाए। जो एक पिता होने के नाते उसके लिए गर्व की बात है।
अब जानिए क्या है पूरा मामला...
पिता हत्या का दोषी, आजीवन कारावास की सजा काट रहा
याचिकाकर्ता को 2012 में एक हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था। वह आजीवन कारावास की सजा काट रहा है। याचिका के अनुसार उसके बेटे का का चयन ऑस्ट्रेलिया में एक कोर्स के लिए हुआ है।
इसके लिए 36 लाख रुपये की ट्यूशन फीस के साथ-साथ यात्रा और रहने का खर्च की व्यवस्था करनी है। याचिका में एक महीने के पैरोल की मांग की गई थी।
क्या है पैरोल और फरलो के नियम
पैरोल के तहत कैदी को निश्चित अवधि के लिए सशर्त रिहाई दी जाती है। किसी कैदी को पैरोल मिलेगा या नहीं यह जेल के अंदर उसके व्यवहार पर भी निर्भर करता है।
पैरोल कोई अधिकार नहीं, बल्कि किसी विशेष कारण से दी गई रियायत भर है। पैरोल के दौरान कैदी को समय-समय अधिकारियों को रिपोर्ट भी करना होता है। यदि संबंधित अधिकारी को लगता है कि कैदी समाज के लिए खतरा है तो पैरोल देने से मना भी किया जा सकता है।
वहीं फरलो कैदी का अधिकार होता है जो वह समय समय पर बिना किसी विशेष कारण के ले सकता है। यह सुविधा लंबी अवधि की सजा के मामले में दी जाती है। फरलो के तहत ही कैदी के व्यवहार को देखते हुए सजा से पहले रिहा भी किया जा सकता है। पैरोल और फरलो को जेल अधिनियम 1894 के तहत रखा गया है।