भोपाल । इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के अंतरंग भवन वीथि संकुल में आज “माह के प्रादर्श” श्रृंखला के अंतर्गत माह अक्टूबर, 2021 के प्रादर्श के रूप में ‘रेटियो’ रबारी समुदाय का कताई का एक पारम्परिक चरखा, कच्छ, गुजरात का उदघाटन राजू नाओरोइबम, हेड ऑफ ऑफिस, नेशनल आर्काइव्ज ऑफ इंडिया, रीजनल ऑफिस, भोपाल द्वारा किया गया। इस अवसर पर डॉ. पी. के. मिश्र एवं अनेक गणमान्य नागरिक उपस्थित थे। इस प्रादर्श का संयोजन एन. सकमाचा सिंह, संग्रहालय एसोसिएट द्वारा किया गया है।
प्रदर्शनी में प्रदर्शित प्रादर्श के बारे मे एन. सकमाचा सिंह,
संग्रहालय एसोसिएट ने बताया कि ऐतिहासिक रूप से ऊंट पालकों के नाम से ज्ञात रबारी एक घुमंतु पशुपालक है जो राजस्थान के जैसलमेर और मारवाड़ को अपनी मातृभूमि होने का दावा करते हैं किन्तु 7 वीं सदी
ई. से प्रारंभ हुए मुस्लिम आक्रमणों और संघर्ष के कारण उत्पन्न ऐतिहासिक उथल-पुथल ने उन्हें 11 वीं. सदी
ई. तक अपनी
वास्तविक मातृभूमि को छोड़ने को मजबूर कर दिया।
उन्होंने 15 वीं. सदी ई. के अंत तक विविध भौगौलिक क्षेत्रों में बिखरकर रहना शुरू कर दिया। बाद के चरणों में राजनितिक सीमाओं के बंटवारे तथा प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए प्रवासनों ने उनके पारम्परिक जीवन को अत्यधिक प्रभावित किया और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में विशिष्ट उपसमूहों में विभाजित कर दिया। ऐतिहासिक बिखराव के कारण आये इन परिवर्तनों के बावजूद वे आज भी अपनी संस्कृति के कई पुरातन तत्वों के साथ अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक अस्मिता को कायम रखे हैं। वर्तमान में भारत में रबारी ज्यादातर गुजरात राज्य के कच्छ, सौराष्ट्र और उत्तरी गुजरात के क्षेत्रों में तथा राजस्थान के कुछ भागों में फैले हुए है।
यहाँ प्रदर्शित प्रादर्श कच्छ, गुजरात के
रबारी लोगों से इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय द्वारा वर्ष 1990 में संकलित बड़े आकार के कताई उपकरण का एक शानदार नमूना है। यह प्रादर्श रबारी लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन में महिलाओं की भूमिका को बयां करता है। यह प्रादर्श हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की भी याद दिलाता है जिन्होंने चरखे का उपयोग भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन से लोगों को जोड़ने वाले सबसे महत्वपूर्ण तत्व के रूप में किया।
ऊनी रेशों का उत्पादन- चरवाहे होने
के नाते रबारी अपनी पालतू भेड़ों से ऊन के लिए कच्चे माल का उत्पादन करते हैं। पशुओं से प्राप्त ऊन का बहुतायत में उपयोग मरुस्थलीय पर्यावरण में उनके अनुकूलन के तरीकों से गहन सम्बद्ध है। ऊनी वस्त्र उन्हें पर्यावरण की रुखी और कंटीली वनस्पतियों से बचाते है तथा रेगिस्तान में बढ़ते-घटते दैनिक तापमान के प्रति आवरण भी प्रदान करते हैं। पारंपरिक रूप से कच्चे ऊन की कताई आज भी पुरुषों द्वारा पशुओं को चराने की लम्बी अवधि के दौरान कच्चा ऊन बनाने के लिए प्रयुक्त लट्टू से मिलती-जुलती आरंभिक तकली से की जाती थी। चरखे की उपलब्धता से वे कच्चे ऊन के तागों का काम ज्यादा तेजी से और ज्यादा मात्रा में उत्पादन कर पाये। सबसे महत्वपूर्ण तो अतीत में शुष्क मरुस्थल में जहाँ लकड़ी के सामान बहुत दुर्लभ होते थे वहाँ लकड़ी के एक अच्छे बुनाई उपकरण का होना संभवतः परिवार के लिए एक गौरव की बात होती होगी।
एक सांस्कृतिक पहचान वाली पोषाक बनाने की प्रक्रिया- पारंपरिक
रूप से कच्चे ऊन के उत्पादन, तागा बनाने
हेतु कताई, बुनाई, एक
पोषाक के रूप में सिलाई, रंगाई और
अंततः एक वास्तविक रबारी परिधान के रूप में आकार पाने का पूरा चक्र आस-पास के कई स्त्रोत समुदायों के व्यवसायिक हाथों से गुजर कर पूरा होता है। इनमें से कुछ दक्ष बुनकर हैं तो कुछ रंगरेज और कुछ परिधान निर्माता। रबारी महिलाओं के हाथ में आते ही वस्त्र उनकी कुशल कशीदाकारी और एप्लीक से सजकर वास्तविक रबारी पोषाक बन जाता है।
रेटियो की यांत्रिक कार्यप्रणाली- ‘रेटियो’
रबारी समुदाय द्वारा कच्चे ऊनी रेशों अथवा कपास के गोले से तागा बनाने हेतु प्रयुक्त चरखे का स्थानीय नाम है। यह लोहे के छल्ले या घेरे से कसे एक लकड़ी की फ्रेम में धुरी के साथ जुड़े दो समान पहियों के जोड़े से युक्त है। धुरी के एक सिरे पर चरखे को चलाने के लिए एक लम्बा हत्था है। पहियों या चक्के के किनारे पर दोनों पहियों को गुणाकार में धागे से बंधा रखने के लिए खांचे है ताकि संचालन पट्टी को जहाँ पर तकली जुडी है कसा या फंसाया जा सके। कताई के समय रेशे को तकली पर बाँधा जाता है और चक्के को घुमाने से इसका धागा बनता जाता है।