मुंबई से 140 किलोमीटर दूर लोनावला के तिस्करी जगह पर एक्टर संजय मिश्रा ने अपना आशियाना बनाया है। चकाचौंध और भागदौड़ से दूर इस शांत जगह पर संजय पौने दो एकड़ में फार्म हाउस बना रहे हैं। अभी यह पूरी तरह निर्माणाधीन है, मिस्त्री दिन-रात इसे बनाने में लगे हैं। वहां कई तरह की सब्जियां और पेड़-पौधे भी लगाए गए हैं। संजय ने कहा कि वो हमेशा से गांव वाली लाइफ एन्जॉय करना चाहते थे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था। अब जाकर उनका वो सपना पूरा हुआ है।
संजय ने वहां एक कुटिया नुमा छोटा सा घर भी बनाया है। खास बात यह है कि इसे पूरी तरह लकड़ी से बनाया गया है। कहीं भी ईंट, सीमेंट या बालू का प्रयोग नहीं किया गया है। संजय ने यहां कई तरह के फूल और पत्तियों को भी उगाया है। इसकी देखरेख के लिए आदमी भी रखा है। संजय मिश्रा के इस नए ठिकाने को देखने और उनसे बातचीत करने के लिए दैनिक भास्कर की टीम तिस्करी गांव पहुंची।
संजय ने कहा- मेरा मन अब मुंबई में नहीं लगता
वहां पहुंचते ही हमने देखा कि संजय मिश्रा अपने स्वाभाविक और देसी अंदाज में कारीगरों को दिशा-निर्देश दे रहे हैं। इसके बाद संजय मिश्रा हमें घास-फूस से बने चबूतरे में ले गए। वहां जमीन पर बैठ पर हमने अपनी बात शुरू की। संजय ने कहा कि उनका मन अब मुंबई में नहीं लगता है। वो मुंबई में जाते भी हैं तो मन यहीं खेती-बाड़ी में लगा रहता है। संजय मिश्रा यहां आकर पूरी तरह ग्रामीणों वाला जीवन जी रहे हैं। गांव में जो पानी आता है, वहीं पीते हैं। फिल्टर नहीं लगवाया है। घर के बाहर हैंडपंप के नीचे नहाते हैं।
कुटिया की तरह बनाया घर, इसे बनाने में सिर्फ लकड़ी यूज हुई
संजय मिश्रा ने अपनी पौने दो एकड़ जमीन में एक कुटिया टाइप मकान बनवाया है। यह मकान एक बेडरूम वाला है, जिसमें सिर्फ लकड़ी से काम किया गया है। इस कमरे को बनाने में कहीं से ईंट या सीमेंट का यूज नहीं किया गया है।
दरवाजे से लेकर, दीवारों और फर्श पर भी लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है। बाकायदा संजय ने इसके लिए मुंबई से आर्ट डायरेक्टर को बुलवाया है। आर्ट डायरेक्टर ने इस कुटिया नुमा मकान को डिजाइन किया है।
इस कमरे के अंदर पतला सा बेड है, जिस पर सिर्फ एक आदमी सो सकता है। दरवाजे में भी एंटीक पीस लगाए गए हैं। यहां रिंग बेल भी नहीं लगा है। बल्कि दरवाजे पर पहले के समय की तरह कुंडी लगी है। वहां मौजूद कुर्सियों में कहीं भी फोम या लेदर का यूज नहीं किया गया है।
संजय उस पर बैठकर सीडी प्लेयर पर गजल सुनते हैं। हम जब पहुंचे तो वहां पहले से गजल चल रही थी। संजय ने कहा- मेरी जिंदगी में बस एक ही कसक रह गई है। मैं कभी सितार नहीं बजा पाया। सितार बजाने की मेरी दिली इच्छा थी। उन्होंने कहा, ‘अभी भी लेट नहीं हुआ है। अभी भी बैठ गया तो जल्द ही सीख जाऊंगा।’
गोभी, बैगन, पालक, धनिया और टमाटर उगा रहे हैं संजय मिश्रा
संजय मिश्रा अपने फॉर्महाउस पर गोभी, बैगन, पालक, धनिया और टमाटर जैसी सब्जियां उगा रहे हैं। इसके अलावा चने की दाल की भी पैदावार कर रहे हैं। संजय खुद इसकी देखभाल करते हैं।
संजय ने कहा कि एक बार पैदावार होने लगे, फिर यहां अपनी मां को लेकर आएंगे। उन्होंने कहा, ‘मां जब यहां का वातावरण देखेंगी तो बहुत खुश होंगी। उन्हें लगेगा कि वापस गांव आ गई हैं। अभी जानबूझकर फैमिली को नहीं ला रहा हूं। अभी यहां बहुत ज्यादा डिस्टर्बेंस है। कारीगर लोग दिन भर खटपट-खटपट करते रहते हैं।’
महाराष्ट्रियन लोगों ने मुझे अपना बनाया
संजय मिश्रा ने कहा कि वो बिहार के रहने वाले हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई बनारस में हुई। काम मुंबई में किया और अब मुंबई से इतने दूर लोनावला साइड में एक छोटे से गांव को अपना बना लिया। यहां के महाराष्ट्रियन लोगों ने मुझे अपना बना लिया है। यही तो इस देश की खूबसूरती है।
गांव के माहौल को कभी जी नहीं पाए संजय, अब वो सपना संभव हुआ है
संजय ने कहा, ‘मैं मूल रूप से भले ही गांव का रहने वाला हूं, लेकिन कभी वहां के वातावरण को महसूस नहीं कर पाया। पिताजी का ट्रांसफर होता रहता था। एक शहर से दूसरे शहर में सिमट के रह गया था।
मेरे मन में बहुत इच्छा थी कि गांव के माहौल को देखूं, उसे महसूस कर सकूं। खेती-बाड़ी करने का भी बहुत मन करता था। अब जाकर ये सारी चीजें संभव हो पाई हैं। इन पेड़-पौधों से बच्चों जैसा लगाव हो गया है। मुंबई से बाहर रहकर भी जानने की कोशिश करता हूं कि इनकी ग्रोथ वगैरह कैसी हो रही है।’
संजय ने कहा- यह सब एक अनुभवहीन किसान का किया धरा है
कुछ देर बात करने के बाद संजय उठे और आगे चलने लगे। हम भी उनके पीछे-पीछे हो लिए। उनके हाथ में एक डंडा था। गांव में बड़े-बुजुर्ग अपने साथ एक लाठी या डंडा लेकर चलते हैं।
संजय मिश्रा के हाथों में उस लाठी को देखकर वही याद आ रहा था। हम आगे चलते जा रहे थे। आस-पास गेंदे के फूल की महक आ रही थी। वहां लहसुन, चने और मूली के पौधे लगे हुए थे। संजय ने कहा कि देखो, यह सब एक अनुभवहीन किसान का किया धरा है।
खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर नहीं, बैलों का इस्तेमाल करते हैं
संजय मिश्रा ने हमें कदम का पेड़ दिखाया। वो इस पेड़ को मुंबई से खरीदकर लाए थे। संजय ने कहा कि जमीन पर हल चलता देख वो भावुक हो गए थे। खेत जोतने के लिए भी किसी ट्रैक्टर का इस्तेमाल नहीं किया गया था। बल्कि पारंपरिक रूप से बैलों से हल चलवाए गए हैं।
सबके साथ जमीन पर बैठकर खाना खाते हैं संजय, उन्हें खाना बनाने का भी शौक है
इसके बाद हमने तेजपत्ता और अश्वगंधा के पौधों को नजदीक से देखा। संजय के साथ मौजूद उनके सहयोगी ने बताया कि कभी भी पेड़-पौधों की तरफ उंगली करके बात नहीं करनी चाहिए। इससे उन्हें नुकसान होता है। उपजने से पहले ही वो मर जाते हैं। बात हो ही रही थी कि किचन से लजीज व्यंजन की खुशबू आने लगी। पास जाकर देखा तो किचन से खाना परोसा जा रहा था। थाली में आलू-सोयाबीन की मसालेदार सब्जी दिख रही थी। साथ में चावल भी दिया जा रहा था।
हमने संजय से पूछा कि उन्हें खाने में सबसे ज्यादा क्या पसंद है। जवाब में उन्होंने कहा कि चने के सत्तू से बनी रोटी को वो बहुत चाव से खाते हैं। हमें पता चला कि संजय खाना बनाते भी बहुत बढ़िया हैं। उन्हें मटन बनाने का बहुत शौक है। इसके अलावा आलू-गोभी की सब्जी भी काफी लजीज बनाते हैं।
पढ़ाई का दबाव बनाते थे फैमिली वाले, नाराज होकर घर से भाग गए थे
खाना खाने के बाद हम वॉक करने निकल गए। संजय ने बातों-बातों में अपने बचपन का एक किस्सा सुनाया। संजय ने कहा, ‘बचपन से ही मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता था। घरवाले पढ़ाई करने का दबाव बनाते थे। कोई समझने का प्रयास नहीं करता था कि मैं क्या चाहता हूं।
एक दिन परेशान होकर मां से 50 रुपए चुराकर भाग गया। घर से निकलकर कनॉट प्लेस पहुंचा। वहां एक शख्स गिलास बेच रहा था। वो 20 रुपए में चार गिलास दे रहा था। मैंने 20 रुपए देकर चार गिलास खरीद लिए और इन्हें लेकर रेलवे स्टेशन गया।
जमीन पर एक प्लास्टिक बिछाया और चारों को 12 रुपए प्रति गिलास बेच दिया। ऐसा करके मैंने 50 रुपए से 500 रुपए कमा लिए। फिर ऐसे ही टहल रहा था, तभी पिताजी की नजर मुझ पर पड़ी। मैंने उनके हाथ पर वो 500 रुपए रख दिए। पिताजी ने कहा कि जब इतना अच्छा सोच सकते हो तो इस दिमाग को किसी बेहतर काम में क्यों नहीं लगाते?’
पिताजी ने कहा- पढ़ लो, नहीं तो चपरासी की भी नौकरी नहीं मिलेगी
संजय ने कहा कि उनके घर छोड़ने की वजह से मां को गहरा धक्का लगा। उन्होंने देखा कि मां बिस्तर पर लेटी हैं और उन्हें ड्रिप चढ़ रहा है। यह देखकर उन्हें बहुत बुरा लगा। पिताजी ने कहा कि इतना तो पढ़ लो कि कहीं चपरासी में तुम्हारी नौकरी लग जाए। संजय को फिर से यह बात बहुत बुरी लगी, लेकिन उन्होंने फिर कभी घर नहीं छोड़ा।
संजय ने कहा, ‘आपको अपनी मां-बाप की कोई बात लाख बुरी लगे, लेकिन कभी कुछ गलत कदम मत उठाना। आज कल के बच्चे सुसाइड कर लेते हैं। वो यह बात भूल जाते हैं कि खुद तो मर जाएंगे, लेकिन उनके पीछे जो लोग छूट जाएंगे, उनका क्या होगा।’
छोटा सा घाट भी बना रहे हैं संजय, इसके बगल में मंदिर भी देखने को मिलेगा
संजय की बात सुनते-सुनते हमें पता ही नहीं चला कि कब घाट की तरफ बढ़ गए। अब आप सोच रहे होंगे कि यहां घाट कैसे आ गया। तो हम बताते हैं...दरअसल संजय मिश्रा इस पौने दो एकड़ जमीन के एक हिस्से में पर्सनल घाट बना रहे हैं। वहां जमीन की खुदाई चल रही है।
पानी भरने के बाद यह बिल्कुल जलाशय की तरह दिखेगा। इसके बगल में एक मंदिर भी बना रहे हैं। काम पूरा होने के बाद यह पूरा घाट वाला फील देगा। चूंकि संजय का अधिकांश समय बनारस के घाटों पर बीता है, इसलिए चाहते हैं कि कुछ ऐसा ही अनुभव महाराष्ट्र के इस छोटे से गांव में भी किया जाए।
मुंबई आने का किस्सा- दोस्त ने घर से निकलने को कह दिया था
संजय ने कहा कि मुंबई आने के बाद पहले उन्होंने पूरा शहर घूमा। वहां कब क्या करना पड़ जाए, संजय इसी सोच के साथ इस शहर को एक्सप्लोर करने में लग गए। उन्होंने कहा, ‘मैंने सोचा कि अगर यहां सफल नहीं हुआ तो खाने की भी किल्लत हो जाएगी। ट्रेन में जाकर फिर किताबें भी बेचनी पड़ेंगी। यही सोचकर मैं पूरा शहर घूमा। एक-एक रूट को याद किया। मुंबई लोकल ट्रेन में भी खूब सफर किया।
बोरीवली में मेरे एक भैया रहते थे। उनके एक कमरे के घर में मैं भी रहने लगा। हालांकि, उनके बीवी-बच्चे भी थे। मुझे कुछ दिन बाद झेंप महसूस होने लगी। मैंने उनका घर छोड़ दिया और वहां से एक दोस्त के यहां आ गया।
एक दिन दोस्त ने कहा कि उसके कुछ रिश्तेदार आ रहे हैं, मैं कहीं और व्यवस्था देख लूं। मैंने कहा कि भाई, कहां रहूंगा। कहो तो सबके लिए खाना बना दूंगा। यहां तक कि सबको हंसा भी सकता हूं, उनका मनोरंजन भी कर सकता हूं, लेकिन मेरे दोस्त ने कहा कि तुम्हें जाना ही पड़ेगा कि क्योंकि जो रिश्तेदार आ रहे हैं, उन्हें पसंद नहीं आएगा कि कोई बाहरी यहां रहे। यह सुनकर मैंने वहां से भी बोरिया-बिस्तर बांध लिया।'
पान वाले के यहां गुजारी थी रात
वहीं पास में एक पान की दुकान थी। पान वाला मेरा दोस्त था। उसने कहा कि कहां जाएंगे, मेरे एक छोटे से दुकान में रह लीजिए। ऐसे करके कुछ दिन वहां भी रहा। इसके बाद इधर-उधर रहकर एक-एक दिन काटने लगा। दिन भर डायरेक्टर्स के ऑफिस भटकता रहता था। इस सोच के साथ कि कहीं काम मिल जाए।
संजय ने कहा- मुझे बचपन से कमजोर समझा गया
संजय मिश्रा ने बताया कि उन्हें बचपन से ही अंडर एस्टीमेट किया गया। हर जगह उन्हें दूसरों की तुलना में कमजोर समझा गया। हालांकि, उनके लिए यह अच्छा रहा। संजय ने इस वजह से ज्यादा मेहनत की। परिणाम सबके सामने है।
संजय के पिताजी ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनका बेटा मंझा हुआ कलाकार बनेगा। पिताजी की बात सुनकर संजय मिश्रा भावुक हो गए। उन्होंने कहा, ‘मैं अपने पिताजी को बहुत मिस करता हूं। मेरा हाथ देखो, बिल्कुल उन्हीं की तरह दिखता है। बिल्कुल उन्हीं का रूप हूं। अब चल यार, पिताजी की बात करके रुलाएगा क्या।'
और इन लाइनों के साथ संजय मिश्रा और हमारी बातचीत खत्म हुई। अंत में पिताजी की बात सुनकर वो थोड़े रुआंसे हो गए थे।